महाभारत में जब कौरव और पांडवों का युद्ध शुरू होने वाला था। तब अर्जुन ने शस्त्र रख दिए थे। क्योंकि वे अपने कुटुंब लोगों से युद्ध नहीं करना चाहते थे। उस समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता सार समझाया था। उस समय गीता का जन्म स्वयं श्रीभगवान के श्रीमुख से हुआ। श्रीकृष्ण ने गीता के दूसरे अध्याय के 48वें श्लोक में बताया है कि हमारा कतर्व्य ही धर्म है।
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनंजय।
सिद्धय-सिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
इस श्लोक में श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे धनंजय। कर्म न करने का विचार त्याग दो। यश-अपयश के विषय में न सोचो। सिर्फ अपना कर्म करो। समत्व यानी समभाव रहकर ही अपने कर्तव्य पूरे करना चाहिए, इसे भी योग कहते हैं।
इसका सरल अर्थ यह है कि हमें हर स्थिति में अपना कर्तव्य समभाव होकर पूरा करना चाहिए। यही हमारा धर्म है। लोग धर्म को पूजा-पाठ, कर्मकांड और तीर्थ-मंदिरों तक ही समझते हैं। जबकि हमारा कर्तव्य ही हमारा धर्म है। इसीलिए लाभ-हानि, यश-अपयश का विचार छोड़कर सिर्फ अपने धर्म पर, अपने कर्तव्य पर ध्यान लगाना चाहिए। इस बात का ध्यान रखेंगे तब ही मन को शांति मिल सकती है। जो किसी भी काम की शुरुआत में लाभ-हानि, यश-अपयश के बारे में सोचते हैं, उन्हें न तो सफलता मिलती है और न ही उनका मन कभी शांत हो पाता है।
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