ये वैश्विक महामारी और आर्थिक मंदी कम थी, जो अब लद्दाख में भारत-चीन सीमा पर गंभीर संघर्ष शुरू हो गया! हमारे 20 जवान शहीद हुए जो दुखदायी है। कई स्रोत कह रहे हैं कि शुरुआत चीन ने की। इस जोखिम भरे संतुलन को बिगाड़ना गैरजरूरी लग रहा था। भारतीय जानों का जाना भी अनावश्यक था। इसने हम देशप्रेमी भारतीयों को गुस्से से भर दिया है।
हमारे शहीदों की मौत का बदला लेने का भाव स्वाभाविक है। आखिरकार हमें भी जवाबदेही चाहिए। हम यह संदेश देना भी चाहते हैं कि यह सहा नहीं जाएगा। फिर भी, अगर अपने दिमाग की भी सुनें (जैसा अभी करना भी चाहिए), तो हमें महसूस होगा कि हिंसक बदले से हमें भी नुकसान होगा। शांत रहकर रणनीति पर विचार से भारत का ज्यादा भला होगा।
प्रतिक्रिया तैयार करने के लिए दोनों देशों की आर्थिक, सैन्य और रणनीतिक शक्ति का मूल्यांकन जरूरी है। चीन हमसे जीडीपी अर्थव्यवस्था के मामले में पांच गुना बड़ा है। दौलत में बड़े अंतर का मतलब है, वह हमसे ज्यादा खर्च कर सकता है। वह युद्ध का दर्द भी हमसे ज्यादा झेल सकता है। सैन्य शक्ति के मामले में चीन और भारत दुनिया की दूसरी और तीसरी बड़ी सेनाएं हैं।
चीन के पास हमसे 50% ज्यादा हथियार और तिगुना सैन्य बजट है। स्थानीय सीमा संघर्ष में हम बराबरी से भिड़ सकते हैं। हालांकि, पूरी सेना के मामले में चीन मजबूत है। पिछले चार दशकों में उसने पागलों की तरह आर्थिक वृद्धि की है। हमने ऐसा नहीं किया। शायद यह हमारे लिए सबक है कि अंतत: क्या मायने रखता है। कूटनीति की दृष्टि से, चीन बुरे दौर में है।
कोरोना का स्रोत देश बनने और इस पर चुप्पी से उसकी छवि और खराब हुई है। हांगकांग पर नियंत्रण बढ़ाने के उसके हालिया कानूनों की आलोचना हो रही है। भारत के लिए चीन संग मुद्दों को सुलझाने का यही अवसर है, लेकिन इस पर आगे बात करेंगे।
चीन की बुरी कूटनीतिक स्थिति के बावजूद दुनिया उसपर बहुत निर्भर है। कूटनीति आवभगत या दोस्ताने से नहीं चलती। यह फायदे से चलती है कि किसने किसके लिए क्या किया। चीन दुनिया को सस्ती और विश्वसनीय फैक्टरियां देता है। भारत नहीं देता (अब तक)। चीन ऊंची क्रय-शक्ति वाला बाजार देता है।
भारत भी बड़ा बाजार है, लेकिन इसकी औसत क्रय-शक्ति एक औसत चीनी से पांच गुना कम है। अंतत: दुनिया चीन का ही साथ देगी। इसलिए आर्थिक, सैन्य और कूटनीतिक दृष्टि से भारत के लिए स्थिति जटिल है। ऐसे में सवाल है कि भारत को क्या करना चाहिए (या क्या नहीं)?
पहली बात, भारत को मिलिट्री संघर्ष नहीं बढ़ाना चाहिए। इस घटना के पहले, 45 साल तक हम शांति बनाए रख सकते हैं तो आगे भी यही कोशिश रहे। हमें चीन से बात करनी होगी, जिसका मतलब है कुछ देना और बदले में कुछ पाना। वह क्या हो सकता है?
इसके लिए चीनी संस्कृति के दो जरूरी पहलू समझने होंगे। ये चेहरा (मिअंज़ि) और पारस्परिक निर्भरता ( ग्वान-शी) की अवधारणाएं हैं। वहां करीब एक दशक बिताने और चीनी कंपनियों के साथ काम करने के बाद, मैं कह सकता हूं कि ये दो अवधारणाएं ही वहां व्यापार और संबंध चलाती हैं।
चेहरे का मतलब है सम्मान, प्रतिष्ठा, सामाजिक रुतबा। आप उन्हें ‘चेहरा दे’ (सामाजिक सम्मान) सकते हैं या ‘चेहरा छीन’ (सामाजिक शर्मिंदगी देना) सकते हैं। चीनी लोग ‘चेहरा बनाए रखने’ के लिए कुछ भी करेंगे। वे ‘चेहरा खोने’ पर बदला लेने मजबूर हो जाएंगे। हालांकि, अगर हम चीनियों को चेहरा दे सकें (जो उन्होंने कोरोना के कारण दुनियाभर में खोया है), तो वह बदले में कुछ दे सकता है।
अगर हम उसकी बेइज्जती करना और उसे विरोधी मानना बंदकर सम्मान दें तो नतीजा कुछ और होगा। हमारे पास भड़ास निकालने के लिए पाकिस्तान है। कम से कम सरकार के स्तर पर तो चीन के साथ यह न करें। बल्कि उसके साथ डील करें। हम उसे दुनिया में चेहरा देगें (जैसे महामारी के बाद दूसरे देशों की मदद के उसके प्रयासों की सराहना)। बदले में वह सीमा पर संघर्ष न होने का भरोसा दे।
चीनी संस्कृति की दूसरी अवधारणा ‘ग्वान-शी’ का मतलब है ‘सामाजिक संपर्क’ या ‘संबंध’। आसान शब्दों में तुम मेरी पीठ खुजलाओ, मैं तुम्हारी। हम चीन के लिए क्या कर सकते हैं? हम उसकी छवि की मौजूदा समस्या हल कर सकते हैं। जब अमेरिका उसे फटकारता है तो कभी-कभी उसका पक्ष ले सकते हैं। उसे महसूस करवा सकते हैं कि हमसे उसे मैन्यूफैक्चरिंग छिनने का खतरा नहीं है। बदले में हमें कभी भी सीमा पर समस्या नहीं चाहिए और वह यह सार्वजनिक रूप से माने।
यह असैन्य तरीका, जो चीनी संस्कृति से बेहतर सामंजस्य बैठाता है, चीन से विवाद सुलझाने में ज्यादा कारगर होगा। हम गुस्सा कम करें और रणनीति पर ज्यादा ध्यान दें। चीनियों को ‘चेहरा’ दें और बदले में शांति पाएं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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