कोई भी शक्तिशाली राष्ट्र विदेशी भाषा के जरिए आगे नहीं बढ़ा, भारत को महासंपन्न बनना है तो अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म करना होगा

भारत सरकार को हिंदी दिवस मनाते-मनाते 70 साल हो गए लेकिन कोई हमें बताए कि सरकारी काम-काज या जन-जीवन में हिंदी क्या एक कदम भी आगे बढ़ी? इसका मूल कारण यह है कि हमारे नेता नौकरशाहों के नौकर हैं। भारत के नौकरशाह हमारे स्थायी शासक हैं। उनकी भाषा अंग्रेजी है। देश के कानून अंग्रेजी में बनते हैं, अदालतें अपने फैसले अंग्रेजी में देती हैं, ऊंची पढ़ाई और शोध अंग्रेजी में होते हैं।

अंग्रेजी के बिना आपको कोई ऊंची नौकरी नहीं मिल सकती। क्या हम हमारे नेताओं और सरकार से आशा करें कि वे अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर वे प्रतिबंध लगाएंगे? यह सराहनीय है कि नई शिक्षा नीति में प्राथमिक स्तर पर मातृभाषाओं के माध्यम को लागू किया जाएगा, लेकिन उच्चतम स्तरों से जब तक अंग्रेजी को विदा नहीं किया जाएगा, हिंदी की हैसियत नौकरानी की ही बनी रहेगी।

हिंदी-दिवस तो गया, लेकिन इसे सार्थक बनाने के लिए अंग्रेजी के सार्वजनिक प्रयोग पर प्रतिबंध की जरूरत क्यों है? इसलिए नहीं कि हमें अंग्रेजी से नफरत है। कोई मूर्ख ही होगा जो किसी विदेशी भाषा या अंग्रेजी से नफरत करेगा। कोई स्वेच्छा से जितनी भी विदेशी भाषाएं पढ़े, उतना ही अच्छा! मैंने अंग्रेजी के अलावा रुसी, जर्मन और फारसी पढ़ी, लेकिन अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएचडी का शोधग्रंथ हिंदी में लिखा।

हिंदी-दिवस को सारा देश अंग्रेजी-हटाओ दिवस के तौर पर मनाए! अंग्रेजी मिटाओ नहीं, सिर्फ हटाओ! अंग्रेजी की अनिवार्यता हर जगह से हटाएं। उन सब स्कूलों, कॉलेजों और यूनिवर्सिटी की मान्यता खत्म की जाए, जो अंग्रेजी माध्यम से कोई भी विषय पढ़ाते हैं। संसद और विधानसभाओं में जो भी अंग्रेजी बोले, उसे कम से कम छह माह के लिए मुअत्तिल किया जाए। यह मैं नहीं कह रहा हूं। यह महात्मा गांधी ने कहा था।

सारे कानून हिंदी और लोकभाषाओं में बनें और अदालती बहस और फैसले भी उन्हीं भाषाओं में हों। किसी भी नौकरी के लिए अंग्रेजी अनिवार्य न हो। हर यूनिवर्सिटी में दुनिया की प्रमुख विदेशी भाषाओं को सिखाने का प्रबंध हो ताकि हमारे लोग कूटनीति, विदेश व्यापार और शोध के मामले में पारंगत हों। हम अपना रोजमर्रा का काम-काज हिंदी या स्वभाषाओं में करें। भारत में जब तक अंग्रेजी का बोलबाला रहेगा यानी अंग्रेजी महारानी बनी रहेगी तब तक आपकी हिंदी नौकरानी ही बनी रहेगी।

कुछ लोग अंग्रेजी को अनिवार्य बनाने के पक्ष में यह तर्क देते हैं कि वह विश्व-भाषा है। विश्व-भाषा का विरोध करना अपने आप को संकुचित करना है। यह तर्क गलत है। हम अंग्रेजी का विरोध नहीं कर रहे हैं। उसकी अनिवार्यता, उसके थोपे जाने का, उसके अनावश्यक वर्चस्व का विरोध कर रहे हैं। यदि वही विश्व-भाषा है तो हमें बताइए कि संयुक्त राष्ट्र संघ, जो विश्व का सबसे बड़ा संगठन है, उसकी एकमात्र भाषा अंग्रेजी क्यों नहीं है?

इस विश्व संगठन की भाषा तो इस तथाकथित विश्व-भाषा को ही होना चाहिए था। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाओं की संख्या 6 है, सिर्फ 1 नहीं। उसकी भाषाएं हैं- अरबी, चीनी, रूसी, फ्रांसीसी, अंग्रेजी और हिस्पानी। इनमें से प्रत्येक भाषा के बोलने वालों से कहीं ज्यादा संख्या हिंदी बोलने और समझने वालों की है।

चीनी भाषियों से भी ज्यादा। 1999 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय प्रतिनिधि के तौर पर मेरा भाषण हुआ था तब मैंने हिंदी में बोलने की कोशिश की थी। अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने हिंदी को भी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की पहल की थी। इस कोशिश को मोदी सरकार अंजाम नहीं देगी तो कौन देगा?

जहां तक भाषा के तौर पर अंग्रेजी की समृद्धता का सवाल है, मेरा निवेदन है कि उसकी लिपि, व्याकरण, उच्चारण, उसके पर्यायवाची शब्द हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के मुकाबले आज भी बहुत पिछड़े हैं। हिंदी तो संस्कृत की पुत्री है और दर्जनों भारतीय भाषाएं उसकी बहनें हैं। संस्कृत की एक धातु में पाणिनी ने लगभग दो हजार धातुओं का उल्लेख किया है। एक धातु में प्रत्यय, उपसर्ग, वचन, पुरुष, लिंग, विभक्तियां आदि लगाकर लाखों शब्द बना सकते हैं।

हिंदी ने संस्कृत, प्राकृत, पाली, अरबी, फारसी, यूनानी, मिस्री, पुर्तगाली और अन्य भारतीय भाषाओं के शब्द ऐसे और इतने हजम कर लिए हैं कि उसका शब्दकोश अंग्रेजी के शब्दकोश से कई गुना बड़ा है। अंग्रेजी के विचित्र व्याकरण व अटपटी लिपि को सुधारने के लिए महान ब्रिटिश साहित्यकार बर्नार्ड शा ने एक न्यास भी बनाया था।

अंग्रेजी दुनिया के सिर्फ साढ़े चार देशों की भाषा है। आधा कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया या फिर वह भारत और पाकिस्तान- जैसे पूर्व-गुलाम देशों (काॅमनवेल्थ) में चलती है। मैं दुनिया के 80-90 देशों में जाकर देख चुका हूं। उनकी सरकार, संसद, अदालत और ऊंची पढ़ाई में वे अपनी भाषा ही चलाते हैं। दुनिया का कोई भी महाशक्ति राष्ट्र विदेशी भाषा के जरिए आगे नहीं बढ़ा है। यदि भारत को महाशक्ति और महासंपन्न बनना है तो उसे अपने देश से अंग्रेजी के वर्चस्व को खत्म करना होगा और सब कामों में स्वभाषाओं को बढ़ाना होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)



आज की ताज़ा ख़बरें पढ़ने के लिए दैनिक भास्कर ऍप डाउनलोड करें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष


from Dainik Bhaskar https://ift.tt/2ZNt9Ex
via IFTTT
SHARE

Milan Tomic

Hi. I’m Designer of Blog Magic. I’m CEO/Founder of ThemeXpose. I’m Creative Art Director, Web Designer, UI/UX Designer, Interaction Designer, Industrial Designer, Web Developer, Business Enthusiast, StartUp Enthusiast, Speaker, Writer and Photographer. Inspired to make things looks better.

  • Image
  • Image
  • Image
  • Image
  • Image
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें