सेठ को काम शुरू करना था तो उन्होंने हमें फ्लाइट से मेंगलुरू बुलवाया था। वहां पहुंचे तो उन्होंने बताया कि अब दूसरी कंपनी के साथ कॉन्ट्रैक्ट हो गया है, इसलिए तुम्हारी जरूरत नहीं। हमने वापस जाने के लिए किराया देने का कहा तो बोले, तुम्हें पहले ही फ्लाइट से बुलवाया है, मेरा काफी पैसा खर्च हो गया। अब जाने का किराया नहीं दे सकता। अपने हिसाब से निकल जाओ।
इसके बाद हम बड़ी मुश्किल से मुंबई तक आए। मुंबई स्टेशन पर तीन दिन तक पड़े रहे क्योंकि वापस जाने का किराया ही नहीं था। दो दिन से खाना नहीं खाया था। कृष्णकांत धुरिया नाम के ऑटो चालक ने खाना खिलवाया। उन्हीं के मोबाइल पर रिश्तेदार से पांच सौ रुपए डलवाए, तब कहीं जाकर गोरखपुर के लिए निकल पा रहे हैं।
यह दास्तां गोरखपुर से मेंगलुरू गए उन आठ मजदूरों की है, जो मुंबई के लोकमान्य तिलक स्टेशन पर तीन दिनों तक फंसे रहे। तीन दिन भूखे थे। इन लोगों का हाल देखकर ऑटो चालक कृष्णकांत ने बात की और इन्हें तिलक नगर में शिव भोजन में खिलाने ले गया। वहां 5 रुपए में खाना मिलता है। वहां 5 रुपए में इन लोगों को एक की बजाए दो-दो प्लेट खाना दिया गया। फिर कुशीनगर ट्रेन से ये घर के लिए रवाना हुए।
गांवों से मुंबई लौट रहे मजदूरों की अलग-अलग कहानियां हैं। इन लोगों में डर इतना ज्यादा है कि किसी से बातचीत तक नहीं कर रहे, इन्हें लग रहा है कि कहीं हमें क्वारैंटाइन न कर दिया जाए। शनिवार दोपहर सवा दो बजे पाटलीपुत्र एक्सप्रेस से बड़ी संख्या में बिहार से आए वो कामगार मुंबई में उतरे, जो कोरोना के चलते पलायन पर मजबूर हुए थे।
कैमरा देखते ही ये लोग दूर भाग रहे थे। पुलिस इनके हाथों पर होम क्वारैंटाइन का मार्क लगा रही थी। हर किसी के मन में अजीब से घबराहट थी। कोरोना का डर भी था, लेकिन पेट का सवाल भी था, इसलिए खतरा होने के बावजूद मुंबई आ गए। सिर पर बोरी रखकर चल रहे एक शख्स से हमने पूछा कि आप बात क्यों नहीं करना चाहते तो उन्होंने कहा कि, 14 दिन के लिए क्वारैंटाइन नहीं होना।
हमें बस अपना पेट पालना है। हमें कोई दिक्कत नहीं है। स्टेशन के बाहर ही पटना से आए संजीव राजपूत अपने दो बच्चों और पत्नी के साथ बैठे थे। संजीव होटल-रेस्टोरेंट में परफ्यूम सप्लाई किया करते थे। थियेटर में भी जाते थे, वहां मैनेजमेंट का कुछ काम करते थे लेकिन अभी न थियेटर खुले हैं और न ही कोई रेस्टोरेंट परफ्यूम बुलवा रहा है, ऐसे में इनके पास करने को अब कुछ नहीं है।
मुंबई में कैसे दिन बिताएंगे? ये पूछने पर बोले, सब्जी-भाजी कुछ बेचूंगा। घर का लोन भी चल रहा है, अभी तक तो मोरेटोरियम पीरियड था तो बैंक से कॉल नहीं आया लेकिन अब सितंबर में मोरेटोरियम पीरियड खत्म हो रहा है। अब पता नहीं क्या होगा। बोले, दो बच्चे हैं। स्कूल से फोन आ रहा है कि फीस भरो, ऑनलाइन क्लास चल रही है, लेकिन यहां तो खाने-पीने के ही ठिकाने नहीं हैं।
ऐसे में फीस भरना तो बड़ी दूर की बात है। संजीव अब सालभर में मुंबई छोड़ना चाहते हैं। कहते हैं, अपने घर में ही कुछ करेंगे। अभी इसलिए आ गया कि कुछ न कुछ काम तो मिले ताकि पैसा आना शुरू हो। कुछ दिनों में परिवार को यहां से लेकर चले जाऊंगा।
आजमगढ़ से आए धर्मेंद्र तो अपने साथ राशन, चावल और आटा तक लाए हैं। यहां किराये का ऑटो चलाते हैं। कहते हैं, कमाई क्या होगी, कितनी होगी ठिकाना नहीं है इसलिए गांव से जितना सामान हो सकता था भर लाए हैं। लॉकडाउन में कैसे गुजर बसर चला? इस पर बोले, पूछिए मत। बहुत बुरा समय निकला। पानी पी-पीकर पेट भरा है। अब फिर किसी ऑटो की तलाश करूंगा।
बनारस के जमील अहमद जून में पहली बार फ्लाइट में बैठे थे। परिवार के साथ मुंबई से बनारस जाना था। माहिम ट्रस्ट ने इनका ट्रेन से रिजर्वेशन करवाया था लेकिन ट्रेन ही रद्द हो गई। इसके बाद अमिताभ बच्चन के ट्रस्ट की मदद से इन मजदूरों को फ्री में फ्लाइट से मुंबई से बनारस भेजा गया। जमील मुंबई में आठ बाय दस के कमरे में पूरे परिवार के साथ रहते हैं। इसी कमरे में किचन भी है।
शौचालय सार्वजनिक है। कहते हैं, मेरे हाथ में हुनर है। सिलाई का काम करता हूं। गांव में कोई काम नहीं था। भूखे मरने की नौबत थी। इसलिए अकेला ही मुंबई चला आया। अब यहां सिलाई का कहीं न कहीं काम तलाश करूंगा। पहले जहां काम करता था, वहां भी जाऊंगा यदि काम मिल गया और पैसे आने लगे तब ही पत्नी और बच्चों को लाऊंगा।
ऑटो चालक रमेश कहते हैं, पिछले कुछ दिनों से यूपी-बिहार से आने वाली ट्रेनें रोजाना फुल आ रही हैं। लोगों को उनके सेठ ने बुलाया है। यहां जो वर्कर जिस फैक्ट्री में काम करते हैं, उन्हें वहीं रहने के लिए कमरा भी मिलता है। एक कमरे में दस-बारह लोगों का रहना आम बात है। खाने का इंतजाम मजदूरों को खुद करना पड़ता है। आठ से दस हजार रुपए औसत पगार मिल जाती है।
अभी जो लोग आ रहे हैं, उनके मन में सबसे बड़ा डर यही है कि सेठ काम पर रखेगा या नहीं। पगार मिलेगी या नहीं। कहीं क्वारैंटाइन तो नहीं कर दिया जाएगा। इन सब आशंकाओं के बीच वो लोग आ रहे हैं, क्योंकि उनके पास गांव में करने को कुछ है ही नहीं। कहते हैं, मनरेगा का पैसा भी पंचायत वाले खा जाते हैं।
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