एक चुनाव, हमारी व्यवस्था में नियमित, न थमने वाला सिलसिला है। बिहार में चुनाव हुए। बंगाल में आसन्न हैं। अन्य राज्य क्रम में हैं। पर साथ ही विधायिका, नई-नई चुनौतियों का समाधान ढूंढने वाली श्रेष्ठ संस्था बने, यह अपेक्षा भी जनमानस में बढ़ी है। इस बदलाव के दौर में जन आकांक्षाओं के प्रति लगातार संवेदनशील रहना जन प्रतिनिधियों के लिए चुनौती है।
मैं 2014 में सांसद बना। बिहार के एक कॉलेज में आमंत्रण था। वहां एक मेधावी छात्र ने मुझे अपनी एक जिज्ञासा बताई। उसने पूछा, ‘हमने लोकतांत्रिक प्रक्रिया ‘वेस्ट मिनिस्टर मॉडल’ (लोकतंत्र का पश्चिमी मॉडल) अपनाया है। ब्रिटेन, अमेरिका, वगैरह की तरह। ‘वेस्ट मिनिस्टर मॉडल’, डेकोरम, प्रोसिजर, डिसेंसी और डिग्निटी से चलता है। हमारे यहां विधायिका क्या इस तरह चलती है? क्या आप सब इस मर्यादा से बंधे हैं?’
अपनी इस जिज्ञासा के बाद उसने कहा कि हमारे देश की समृद्ध परंपरा से आप माननीय सदस्य वाकिफ होंगे ही? हमारे यहां शास्त्रार्थ की परंपरा रही है। यह प्रायः अलिखित, मर्यादित तथा समृद्ध परंपरा से बंधी व्यवस्था है। शास्त्रार्थ या संवाद की कसौटी तय हुई, जिन्होंने मानव, समाज, व्यवस्था, जीवन के मकसद, दर्शन को समझने व विकास में मदद की। राज्य-संचालन में इसकी भूमिका रही। जीवन-दर्शन तय करने के काम इन मंचों पर हुए।
उन्होंने बौद्ध पीठों, जहां त्रिपिटिक रचे गए, की याद दिलाई। दुनिया के पहले लोकतांत्रिक गणराज्य लिच्छिवियों का उल्लेख किया। भगवान बुद्ध ने कहा भी है कि लिच्छवी सभाओं में आम सहमति से सभी निर्णय करते हैं। जब तक उनकी यह समृद्ध परंपरा बनी रहेगी, उनके राज्य का कोई नुकसान नहीं कर सकता। जनक के दरबार में अष्टावक्र की बातें, महाभारत के कुरूवंश में कृष्ण के संवाद याद दिलाए।
मिथिला में शंकराचार्य-मंडन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ की चर्चा की। कहा कि ईसा सदी की शुरुआत में जैन परंपरा में, महावीर और बुद्ध के समय भारत में शास्त्रार्थ, संवाद और डिबेट का जो स्तर था, उसमें आत्मानुशासन था। जहां धर्म, दर्शन, नैतिक जीवन व शासन के महत्वपूर्ण पक्षों पर श्रेष्ठ शास्त्रार्थ होते थे। उनके मैनुअल बने थे। 150 एडी के गौतम अक्षपाद के न्यायसूत्र में तीन तरह के संवाद का उल्लेख है।
पहला, श्रेष्ठ संवाद वह है, जिसमें तार्किक बातें की जाएं, साक्ष्य के साथ। फिर कहा संविधान में विधायिका गठन के मूल में यह अपेक्षा है कि इसमें देश की समस्याओं की जड़ में हम ईमानदारी से, आपसी संवाद से हल ढूंढ सकें। क्या विधायिका के सदस्य के रूप में यह काम करते हैं? फिर बताया, विधायिका में बैठे लोगों के आचरण का असर क्या होता है? फिर कहा, गीता को धार्मिक ग्रंथ मानें या न मानें, पर उसमें उद्धृत कथनों से दुनिया सीखती है। उसमें एक श्लोक है-
यद्यदाचरति श्रेष्ठ स्तत्तदेवतरो जनः
स यत्प्रमाणः कुरूते लोकस्तदनुवर्त ते।
यानी, महान (लोकतंत्र में बड़े पदों पर आसीन रहनुमा) लोग जो भी करते हैं, वही चीज दूसरे अपनाते हैं। वह जीवन में जो भी मानक (स्टैंडर्ड) अपनाते हैं, सामान्य लोग उसी रास्ते पर चलते हैं। ईमानदार आत्मस्वीकारोक्ति है कि यह सवाल अब भी यक्ष प्रश्न के रूप में सामने रहता है। महाभारत में भी उल्लेख है, ‘महाजनो येन गताः सो पंथा’। यानी समाज के अगुआ लोग जिस रास्ते जाते हैं, अन्य लोग वही राह अपनाते हैं।
लोक कहावत भी है, यथा राजा, तथा प्रजा। इतिहास में उल्लेख है कि प्राचीन भारत में बड़े पैमाने पर औपचारिक संवाद-डिबेट होते थे। राज्याश्रय में भी ऐसे आयोजन होते थे। धार्मिक, दार्शनिक, नैतिक संहिता गढ़ने या तय करने के लिए। वाद्यविद्या के अनेक मैनुअल बने थे।
इन्हीं संवादों या डिबेटों से तर्कशास्त्र की भारतीय परंपरा या शोध-मनन की धारा समृद्ध हुई। वृहद्कारण्य उपनिषद में राजा जनक का उल्लेख है। वे न सिर्फ ऐसे आयोजन कराते थे या राजाश्रय देते थे, बल्कि हिस्सा भी लेते थे। इसमें ऋषि-संत व महिलाएं भी भाग लेती थीं।
उपनिषदकाल में ऐसे आयोजनों के उल्लेख हैं। दूसरी-तीसरी शताब्दी तक तो बौद्ध भिक्षुओं के सफल वाद-विवाद आयोजन के लिए प्रशिक्षण होता था। विभिन्न समूहों ने अपने-अपने विचार-विमर्श के लिए मैनुअल बनाए। मूल रूप से संस्कृत में तैयार इस तरह कि नियम पुस्तिकाएं अब उपलब्ध नहीं हैं।
पर पुराने बौद्ध साहित्य, चीनी स्रोतों, पाली ग्रंथों में इनके उल्लेख हैं। मसलन चरक संहिता में वाद-विवाद के सिद्धांतों की चर्चा है। न्यायसूत्र में ‘वादे-वादे जयते तत्व बोध’ यानी सत्य का अनुसंधान वाद-विवाद, संवाद से ही होता है, मान्यता है। सांसद, विधायक से लेकर पंचायत प्रतिनिधियों के लिए अब अपनी भूमिका को इस संदर्भ में परखने का भी अवसर है।
अब पुराने मानस से हम चलें, तो तेजी से बदल रहे समाज-लोक चेतना में हमारी साख कैसे बेहतर होगी? जनता की अपेक्षाएं कई स्तरों पर राजनीति-नेतृत्व से लगातार बढ़ रही हैं। नए होनहार युवा, राजनीति या व्यवस्था को बारीकी से परख रहे हैं। यह स्वागत योग्य है, चूंकि उनका भविष्य, इससे जुड़ा है। राजनीतिक दलों या विधायिका से जुड़े लोगों को इस बदलती लोक चेतना के प्रति सजग रहना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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