मई 2014 में जब केंद्र में मोदी सरकार आई, तो कुछ समय बाद ही एक देश और एक चुनाव को लेकर बहस शुरू हो गई। मोदी कई बार वन नेशन-वन इलेक्शन की वकालत कर चुके हैं। एक बार फिर उन्होंने इसे दोहराया है। संविधान दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, 'आज एक देश-एक चुनाव सिर्फ बहस का मुद्दा नहीं रहा। ये भारत की जरूरत है। इसलिए इस मसले पर गहन विचार-विमर्श और अध्ययन किया जाना चाहिए।'
लेकिन क्या वाकई देश में वन नेशन-वन इलेक्शन मुमकिन है। इसके पक्ष और विपक्ष में क्या तर्क हैं? आइए जानते हैं...
सबसे पहले, क्या है वन नेशन-वन इलेक्शन?
वन नेशन-वन इलेक्शन या एक देश-एक चुनाव का मतलब हुआ कि पूरे देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हों। आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे, लेकिन 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गईं। उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई। इस वजह से एक देश-एक चुनाव की परंपरा टूट गई।
क्या वाकई इसकी जरूरत है?
दिसंबर 2015 में लॉ कमीशन ने वन नेशन-वन इलेक्शन पर एक रिपोर्ट पेश की थी। इसमें बताया था कि अगर देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभा के चुनाव कराए जाते हैं, तो इससे करोड़ों रुपए बचाए जा सकते हैं। इसके साथ ही बार-बार चुनाव आचार संहिता न लगने की वजह से डेवलपमेंट वर्क पर भी असर नहीं पड़ेगा। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए सिफारिश की गई थी कि देश में एक साथ चुनाव कराए जाने चाहिए।
तो क्या चुनावी खर्च सरकारी है?
हां। उम्मीदवार तो अपने प्रचार का खर्च खुद उठाता है, लेकिन चुनाव कराने का पूरा खर्च सरकारी ही होता है। अक्टूबर 1979 में लॉ कमीशन ने चुनावी खर्च को लेकर गाइडलाइन जारी की थीं। इस गाइडलाइन के मुताबिक, लोकसभा चुनाव का सारा खर्च केंद्र सरकार उठाती है। इसी तरह विधानसभा चुनाव का खर्च राज्य सरकार के जिम्मे है। अगर लोकसभा चुनाव के साथ-साथ किसी राज्य में विधानसभा चुनाव भी होते हैं, तो उसका आधा-आधा खर्च केंद्र और राज्य सरकार उठाती है।
तो जानिए लोकसभा चुनावों में कितना सरकारी खर्च होता है?
इलेक्शन कमीशन के मुताबिक, देश में 1952 में जब पहली बार लोकसभा चुनाव हुए थे, तब 10.52 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। उसके बाद 1957 और 1962 के चुनाव में सरकार का खर्च कम हुआ था। लेकिन 1967 के चुनाव से हर साल केंद्र सरकार का खर्च बढ़ता ही गया। फिलहाल 2014 के लोकसभा चुनाव तक के ही खर्च का ब्यौरा है। 2014 में 3,870 करोड़ रुपए से ज्यादा खर्च हुए थे।
ये तो हुई लोकसभा चुनाव में खर्च की बात, अब चलते हैं विधानसभा चुनावों की ओर
विधानसभा चुनाव के खर्च का सही हिसाब-किताब नहीं है, लेकिन 30 अगस्त 2018 को लॉ कमीशन ने एक और रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट में कमीशन ने 2014 के लोकसभा चुनाव के आसपास हुए विधानसभा चुनाव के खर्च की जानकारी दी थी। उस रिपोर्ट में कमीशन ने महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हरियाणा, झारखंड और दिल्ली में लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में कितना खर्च हुआ, इसकी तुलना की थी और पाया था कि इन राज्यों में लोकसभा चुनाव के वक्त जितना सरकारी खर्च हुआ, लगभग उतना ही विधानसभा चुनाव में भी हुआ था।
तो क्या साथ चुनाव कराने से खर्चा बचाया जा सकता है?
हां। एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में बोलने वाले यही तर्क देते हैं। लॉ कमीशन और नीति आयोग की रिपोर्ट में यही कहा गया है कि अगर लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ कराए जाते हैं, तो इससे खर्चा काफी कम किया जा सकता है। हालांकि, साथ चुनाव कराने से खर्च कितना बचेगा, इसका आंकड़ा तो रिपोर्ट में नहीं दिया था।
लेकिन, साथ में चुनाव कराने से थोड़ा खर्च जरूर बढ़ेगा, लेकिन इतना नहीं जितना अलग-अलग चुनाव कराने पर बढ़ता है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले अगस्त 2018 में लॉ कमीशन की एक रिपोर्ट आई थी। इसमें कहा था कि अगर 2019 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ होते हैं, तो उससे 4,500 करोड़ रुपए का खर्च बढ़ेगा। ये खर्चा इसलिए क्योंकि EVM ज्यादा लगानी पड़ेंगी। इसमें ये भी कहा गया था कि साथ चुनाव कराने का सिलसिला आगे बढ़ता है, तो 2024 में 1,751 करोड़ रुपए का खर्च बढ़ता। यानी, धीरे-धीरे ये एक्स्ट्रा खर्च भी कम हो जाता।
जब खर्च बच रहा है तो फिर साथ चुनाव कराने में दिक्कत क्या है?
5 साल का कार्यकालः संविधान के आर्टिकल 83 के मुताबिक, लोकसभा का कार्यकाल 5 साल तक रहेगा। जबकि, आर्टिकल 172(1) के मुताबिक, विधानसभा का कार्यकाल 5 साल तक ही रहेगा। हालांकि, आर्टिकल 83(2) में ये प्रावधान है कि लोकसभा और विधानसभा का कार्यकाल एक बार में सिर्फ 1 साल तक के लिए ही बढ़ाया जा सकता है, बशर्ते देश में एमरजेंसी लगी हो। 1977 में एमरजेंसी की वजह से लोकसभा का कार्यकाल 10 महीने के लिए बढ़ाया गया था।
5 साल से पहले भंग कैसे होगीः लोकसभा और विधानसभा को 5 साल से पहले किस आधार पर भंग किया जा सकता है। आर्टिकल 85(2)(b) में राष्ट्रपति के पास लोकसभा भंग करने का अधिकार है। इसी तरह से आर्टिकल 174(2)(b) में गवर्नर के पास विधानसभा भंग करने का अधिकार है। लेकिन यहां भी एक पेंच है। वो ये कि अगर राज्यपाल विधानसभा भंग करने की सिफारिश करते भी हैं और दोबारा चुनाव कराने की जरूरत पड़ती है तो संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) की मंजूरी जरूरी होगी।
अगर लोकसभा 5 साल से पहले भंग हुई तोः एक साथ चुनाव कराने में तीसरी दिक्कत ये है कि अगर लोकसभा 5 साल से पहले ही भंग कर दी गई तो क्या होगा? क्योंकि अभी तक लोकसभा 6 बार 5 साल से पहले ही भंग कर दी गई, जबकि एक बार इसका कार्यकाल 10 महीने के लिए बढ़ा था। मतलब अगर साथ में चुनाव हो भी जाते हैं और लोकसभा समय से पहले भंग कर दी जाती है, तो स्थिति दोबारा से वही बन जाएगी, जो अभी है। यानी, हम घूम-फिरकर दोबारा से अलग-अलग चुनाव की तरफ ही आ जाएंगे।
तो फिर कैसे हो सकते हैं एक साथ चुनाव?
लॉ कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में दो फेज में चुनाव कराए जा सकते हैं। पहले फेज में लोकसभा चुनाव के साथ ही कुछ राज्यों के चुनाव भी करा दिए जाएं और दूसरे फेज में बाकी बचे राज्यों के चुनाव साथ में करवा दें। हालांकि, इसके लिए कुछ राज्यों का कार्यकाल बढ़ाना पड़ेगा, तो किसी को समय से पहले ही भंग करना होगा।
तो क्या राजनीतिक पार्टियां मानेंगी, जिन्हें ये करना है?
जुलाई 2018 में लॉ कमीशन ने एक साथ चुनाव को लेकर राजनीतिक पार्टियों की एक मीटिंग बुलाई थी। सिर्फ 4 पार्टियों ने ही इसका समर्थन किया, जबकि 9 विरोध में थीं। भाजपा और कांग्रेस ने इस पर कोई राय नहीं दी थी।
विरोध करने वाली पार्टियों की कई चिंताएं भी थीं। उनका कहना था कि अगर साथ चुनाव कराने के कारण समय से पहले विधानसभा भंग कर दी गई और चुनाव में रूलिंग पार्टी या गठबंधन हार गई तो? पार्टियों का ये भी कहना था कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ होने से वोटर स्थानीय मुद्दों की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों पर वोट डालेगा।
एक सवाल ये भी कि साथ चुनाव कराने से एक ही पार्टी को जीत मिलेगी?
राजनीतिक पार्टियों को तो इसकी चिंता है, लेकिन ऐसा कहा भी नहीं जा सकता। क्योंकि हमारे देश का वोटर अलग सोच रखता है। अगर वो लोकसभा में किसी पार्टी को जिता रहा है, तो इसका मतलब ये नहीं कि विधानसभा में भी उसे ही जिताए।
जैसे 2019 के लोकसभा चुनाव से 6 महीने पहले ही मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में चुनाव हुए। इन तीनों राज्यों में भाजपा हार गई। लेकिन जब यहां लोकसभा चुनाव हुए तो भाजपा ने यहां की 95% से ज्यादा सीटें जीत लीं। इसी तरह लोकसभा के बाद महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में विधानसभा चुनाव हुए। भाजपा मुश्किल से हरियाणा में सत्ता बचा पाई।
इससे समझ आता है कि 6 महीने पहले वोटर ने जिस पार्टी को चुनाव में जिताया, 6 महीने बाद उसी पार्टी को हरा भी दिया। यानी वोटर लोकसभा में और विधानसभा में अलग मुद्दों को ध्यान में रखकर वोट करता है।
इतना तो ठीक है, लेकिन क्या ये अभी मुमकिन है?
फिलहाल तो एक साथ चुनाव होने की गुंजाइश नहीं दिख रही है। अभी लॉ कमीशन एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने का ढांचा तैयार कर रही है। ये अभी इसलिए भी मुमकिन नहीं है क्योंकि हमारे देश में हर साल औसतन 5 राज्यों के चुनाव होते हैं। अगले साल ही जनवरी से जून के बीच 6 राज्यों में चुनाव होने हैं।
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